सूचना क्रांति का आधा-अधूरा अमल

अब उम्मीद की जानी चाहिए कि पिछले दो साल से एक अदद राशन कार्ड पाने के लिए दर दर भटक रही दिल्ली की निवासी एक गरीब बूढ़ी महिला दुर्गा को राशन कार्ड मिल जाएगा? उसे दिल्ली सरकार के दफ्तरों की खाक छानते हुए जो पापड़ बेलने पड़े उन्हें याद करके ही वह सिहर जाती हैं। अंतत: राशन कार्ड की जानकारी पाने के लिए उसे सूचना अधिकार के मार्फत आवेदन दाखिल करना पड़ा। मगर इस हिमाकत के लिए भी उसे सतर्कता समिति के अधिकारी की तरफ से धमकी मिली। इसे गनीमत समझा जाएगा कि दुर्गा को झेलनी पड़ी परेशानी की खबर सूचना आयुक्त के पास पहुंची और उन्हें दुर्गा को मुआवजा देने का निर्देश देना पड़ा। सूचना अधिकार का इस्तेमाल करने वालों को क्या कुछ झेलना पड़ सकता है इसकी महज यह एक बानगी है। बहरहाल, पिछले कुछ दिनों से छत्तीसगढ़ में सक्रिय सूचना अधिकार कार्यकर्ता रमेश अग्रवाल, डॉक्टर हरिहर पटेल आदि का मामला अधिक सूर्खियों में रहा है। रायगढ़ पुलिस द्वारा गिरफ्तार अस्पताल के बेड पर जंजीरों से बंधे पड़े रमेश अग्रवाल की तस्वीर ने काफी आक्रोश पैदा किया था। इन दोनों का जुर्म इतना ही था कि छत्तीसगढ़ के रायगढ जिले के तामनार इलाके में एक अग्रणी कारपोरेट समूह द्वारा जिस कोयला आधारित 300 मेगावाट पावर प्लांट की शुरूआत की जा रही है उसे मिली मंजूरी को लेकर उन्होंने कुछ आवश्यक जानकारी हासिल करनी चाही थी। इस काम के लिए उन्होंने सरकार द्वारा अधिसूचित सूचना अधिकार अधिनियम के प्रावधानों का इस्तेमाल किया था। उन्हें यह देख कर आश्चर्य हुआ कि नवंबर 2010 में प्रस्तुत परियोजना को पर्यावरण संबन्धी मामलों में क्लीयरेंस के बिना ही पर्यावरण मंत्रालय द्वारा मंजूरी दी गई है। गौरतलब था कि पुणे के पास स्थित लवासा प्रोजेक्ट पर पर्यावरण संबंधी मामलों में क्लीयरेंस न लेने के लिए आपत्ति दर्ज कराने वाला पर्यावरण मंत्रालय इस परियोजना पर दोहर मापदंड अपना रहा था। कहा जाता है कि रमेश अग्रवाल, डॉ. हरिहर पटेल आदि की सक्रियताओं से चिढ़े कंपनी के प्रबंधन के इशारे पर इन लोगों की गिरफ्तारियां हुई। आरोप यह लगाया गया कि कंपनी द्वारा आयोजित जन सुनवाई के दौरान उन्होंने कंपनी के कर्मचारियों के साथ दु‌र्व्यवहार किया। उधर पोरबंदर में सूचना अधिकार कार्यकर्ता एवं पेशे से वकील भागु देवानी को इलाके में चल रहे अवैध निर्माणों की जानकारी लेने के लिए सूचना अधिकार का इस्तेमाल करने के लिए जानलेवा हमले का शिकार होना पड़ा। जून माह के अंतिम सप्ताह में जब जनाब भागु देवानी अदालत जा रहे थे, तब दो अनजान व्यक्तियों ने उनकी कार को रोककर उन्हें चाकू से घायल किया। भागु देवानी के मुताबिक यह अवैध निर्माण एक नेता के संरक्षण में हो रहा है, जो शहर के खदान एवं निर्माण उद्योग का उभरता नाम है। गनीमत समझी जाएगी कि भागु देवानी बच गए, मगर गुजरात के ही अमित जेठवा और विश्राम लक्ष्मण दोदिया उतने भाग्यशाली नहीं थे। सूरत के निवासी किताब के व्यापारी दोदिया को टारेंट पॉवर द्वारा लगाए गए अवैध बिजली कनेक्शन की जानकारी सूचना अधिकार के तहत मांगना जहां महंगा पड़ा तो सौराष्ट्र के गिर के संरक्षित जंगलों में जारी अवैध खनन का विरोध करने पर गुजरात हाईकोर्ट के बाहर जेठवा को इलाके के सांसद ने मार डाला। स्पष्ट है कि वर्ष 2005 में पारित सूचना अधिकार कानून के तहत देश के अलग-अलग हिस्सों में आम लोगों द्वारा किए जा रहे इसके प्रयोग एवं सत्ता व संपत्ति पर अपना एकाधिकार समझने वाले कॉरपोरेट मुखियाओं, बेलगाम नौकरशाहों या उन्मत्त राजनेताओं द्वारा इसके खिलाफ की जा रही हिंसक प्रतिक्रिया की मिसालें अक्सर दिखाई देती हैं। वैसे घटनाओं की इस आपाधापी में यह प्रश्न पूछा जाना जरूरी लगता है कि संविधान की धारा 19 जो हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता का अधिकार प्रदान करती है उससे नि:सृत इस कानून की इस संक्षिप्त यात्रा को कैसे देखा जाए? अगर हम फिलहाल गहराई में न भी जाएं तो स्पष्ट है कि इस कानून ने आम लोगों के हाथ में एक ऐसा औजार प्रदान किया है कि वे अपने आप को अधिक सशक्त महसूस कर रहे हैं एवं अपने आप को शासन-प्रशासन की विसंगतियों को उजागर करने की स्थिति में पा रहे हैं। दरअसल, सरकारी ढांचे का स्वरूप इतना अपारदर्शी रहा है कि ब्लॉक स्तर के अदने कर्मचारी या अधिकारी को आप यह सूचना देने के लिए बाध्य नहीं कर सकते थे कि वह बताए कि फलां पुलिया बनाने में कितने धन का आवंटन हुआ और कितना खर्च हुआ। इसके अलावा सूचना के अधिकार का इस्तेमाल कर समूचे देश में छोटे-बडे़ भ्रष्टाचार को उजागर किया जा सका है। कई लोगों पर कार्रवाई भी हुई है। देखा जा सकता है कि प्रस्तुत कानून की मूल भावना यही है कि जब तक हमें यह पता न हो कि सरकारें या सार्वजनिक संस्थान कैसे संचालित होते हैं, हम उसके बारे में कोई सूचनाप्रद राय नहीं रख सकते हैं। दूसरी तरफ इस कानून के बनने के समय से ही इसकी सीमाएं स्पष्ट रही हैं। यह कानून मांगे जाने पर सूचना प्रदान करता है मगर लोगों के जीवन यापन से जरूरी भोजन, पानी, पर्यावरण से जुड़ी जानकारियां अपनी तरफ से देने में कोई रुचि नहीं रखता। निरक्षरों एवं व्यापक गरीबी के इस मुल्क में जानने के हक को यह लोगों को सुगम करने के लिए उन्हें शिक्षित करने के बारे में या सरकारी दायरों में खुलेपन की संस्कृति विकसित करने पर जोर नहीं देता। निजी क्षेत्र को इसके दायरे से पूरी तरह बाहर रखने वाला अधिनियम सरकारी अधिकारियों के हाथों में संकेद्रित सत्ता को भी उजागर करता है। इसके तहत जहां वह सुरक्षा एवं अन्य बहानों के जरिए सूचना देने से मना कर सकते हैं, वहीं तमाम सरकारी महकमों को-सुरक्षा, विदेश नीति की सूचना को प्रतिबंधित रखा गया है। सूचना के अधिकार कानून को कमजोर करने की कोशिशें शुरू हो चुकी हैं। संप्रग हुकूमत में साफ-सुथरी छवि वाले मंत्री एके एंटनी भले ही यह दावा करें कि देश पारदर्शिता क्रांति से गुजर रहा है और हमारी संस्थाएं इसके लिए पूरी तरह तैयार नहीं हैं, मगर हकीकत यही है कि खुद सरकार को ही इस कानून से असुविधा मालूम हो रही है। पिछले दिनों सीबीआइ तथा अन्य जांच एजेंसियों को इसके दायरे के बाहर रखने का मसला भी सामने आया है। सरकार ने अब यह संशोधन भी किया है कि सूचना मांगने वाले की मौत के बाद सूचना अधिकारी जानकारी देने की कार्रवाई को रोक देगा। केंद्र सरकार यह भी चाहती है कि सूचना चाहने के लिए अपील करने वालों को बीच में ही अपील वापस लेने का अधिकार मिले। यह दोनों ही प्रावधान सूचना पाने वाले का मनोबल तोड़ने की कोशिश करने वाले दिखते हैं ताकि सूचना के उजागर होने से जिन व्यक्तियों या समूहों को नुकसान पहुंच रहा हो, वह सूचना पाने वाले पर दबाव डाल सकें या किसी तरह से उन्हें अपने रास्ते से हटा दें।

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