जन अधिकार पर बेजा प्रहार

यह बहुत संतोष की बात है कि सोनिया गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने सूचना अधिकार कानून-2005 में संशोधन के लिए सरकार द्वारा रखे गए प्रस्ताव को खारिज कर दिया है। केंद्रीय कार्मिक मंत्रालय ने संशोधन का जो प्रारूप तैयार किया था उसके अनुसार एक आवेदन एक ही विषय तक सीमित होना चाहिए था तथा इसकी शब्द सीमा अधिकतम 250 होनी चाहिए थी। यह भी प्रस्तावित था कि यदि आवेदक की मौत हो जाती है तो वह मामला वहीं बंद कर दिया जाएगा। सूचना अधिकार कार्यकर्ताओं ने इसका जमकर विरोध किया और अब राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने भी खुलकर इससे अपनी असहमति व्यक्त की है। सलाहकार परिषद ने तो यहां तक आशंका व्यक्त की है कि यदि आवेदनकर्ता की मौत की स्थिति में मामले को बंद करने का प्रावधान रखा जाता है तो मामलों को प्रभावित करने के लिए आवेदकों की हत्या तक की जा सकती है। यह आशंका बिल्कुल सही है और इसमें कुछ भी गलत नहीं है। ऐसा प्रावधान न होने के बावजूद वर्तमान में सूचना कार्यकर्ताओं की हत्याएं की जा रही हैं। हाल के वर्षो में जिन चर्चित कार्यकर्ताओं की हत्या हुई है, वे हैं - ललित कुमार (पलामू), कामेवर यादव (गिरिडीह), वेंकटेश (बेंगलूर), सतीश शेट्टी (पुणे), विश्राम लक्ष्मण डोडिया (सूरत), शशिधर मिश्र (बेगूसराय), अरुण सावंत (बदलापुर, थाने), सोला रंगाराव (कृष्णा), विट्ठल गीते (औरंगाबाद), दत्तात्रेय पाटिल (कोल्हापुर), अमित जेठवा (जूनागढ़), एवं रामदास पाटिल घड़ेगांवकर (नांदेड़)। यह हत्याएं उन लोगों को सबक सिखाने के लिए की जा रही हैं कि जो भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करने का साहस दिखाते हैं। यदि संशोधन पारित हो जाता है कि आवेदक की मौत के बाद मामला बंद कर दिया जाएगा तब तो पता नहीं सूचना कार्यकर्ताओं का क्या हाल होगा? जहां तक प्रश्न को एक विभाग तक सीमित करने की बात है तो कई बार काफी पढ़े-लिखे लोगों को भी पता नहीं होता है कि कौन-सा काम किस विभाग के तहत आता है। कृषि एवं खाद्य मंत्रालयों के कार्य दायरे एक दूसरे से इस तरह मिले-जुले हैं कि आम आदमी को पता ही नहीं होता कि वास्तव में किस विभाग की कौन सी जिम्मेदारी है। वैसे भी, सूचना अधिकार अधिनियम में प्रावधान है कि यदि प्रश्न दूसरे विभाग से संबंधित है तो जनसूचना अधिकारी संबद्ध विभाग से सूचना प्राप्त कर आवेदक को देगा। यह विचित्र है कि उद्योगपतियों एवं निवेशकों को तो सरकार ने सिंगल विंडो क्लियरेंस की सुविधा दी है कि उनकी जरूरतें एक जगह ही पूर कर दी जाएं। फिर यह सुविधा आम लोगों को सूचना प्राप्त करने के लिए क्यों नहीं दी जानी चाहिए? यहां शब्द संख्या को सीमित करने का प्रस्ताव अनुचित नहीं है। इसके लिए शब्द संख्या को 250 से बढ़ाकर 500 किया जा सकता है। संसद में भी प्रश्न को 100 शब्दों तक सीमित करना पड़ता है। कई बार शब्दों की संख्या इसलिए बढ़ जाती है, क्योंकि पढ़े-लिखे लोग कई दस्तावेज भी अपनी बात को पुष्ट करने के लिए साथ में संलग्न कर देते हैं। इन दस्तावेजों के शब्दों को उसमें नहीं गिना जाना चाहिए। केवल प्रश्नों के शब्द गिने जाने चाहिए। आम लोगों द्वारा कानून का दुरुपयोग किए जाने पर अधिकारी काफी बावेला मचा रहे हैं, लेकिन जिस प्रकार के जवाब दिए जा रहे हैं वह हैरान करने वाला है। अक्सर बेशर्मी और बिना भय के या तो सूचना दी नहीं जाती है या गलत सूचनाएं दी जाती हैं। उनका प्रयास यह होता है कि वाक्य विन्यास इस प्रकार का हो कि लगे कि मांगी गई सूचना का जवाब दिया जा रहा है, जबकि उसमें कोई सूचना होती ही नहीं है। नौकरशाह कहने को तो जनसेवक हैं, किंतु वे जनता को नौकर समझते हैं। यह कानून बनने के पहले जनता को सामान्य जानकारी पाने के लिए भी सरकारी दफ्तरों के अनेक चक्कर लगाने होते थे और बाबुओं के आगे गिड़गिड़ाना पड़ता था। स्थानीय निकाय का बजट एक आम दस्तावेज होता है, लेकिन वह भी लोगों को उपलब्ध नहीं होता है। सेंटर फॉर बजट एंड पॉलिसी स्टडीज के द्वारा किए गए एक अध्ययन के मुताबिक बजट के आंकड़े पूरी तरह गलत होते हैं। इन आंकड़ों में कई शून्य जोड़ दिए जाते हैं। वित्तीय वर्ष के अंत में जो आंकडे़ दिखाए जाते हैं वे अगले वित्तीय वर्ष के प्रारंभ के आंकड़ों से कतई मेल नहीं खाते। इसमें कोई दो राय नहीं कि जन सूचना अधिकार आज जनता को मिला सबसे बड़ा अधिकार है, जो बेहोश पड़े प्रशासनिक तंत्र को होश में ला सकता है। आज प्रशासनिक तंत्र ज्यादा जवाबदेह हो रहा है और अधिकारी कोई भी निर्णय लेने से पहले सोचने लगे हैं। इस अधिनियम की शुरुआती पंक्तियों में लिखा है कि लोकतंत्र की जरूरत है जागरूक नागरिक और सूचना की पारदर्शिता। इसके सही तरीके से काम करने पर ही भ्रष्टाचार पर लगाम लग सकती है। इसलिए इस कानून को मजबूती से लागू करने की जरूरत है। इसे किसी भी तरह से कमजोर करना लोकतंत्र के हित के विरुद्ध होगा।

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