सूचना अधिकार कानून से परे क्यों हो सीबीआइ

सीबीआइ को सूचना के अधिकार से छुटकारा देकर मनमोहन सिंह सरकार ने तय कर दिया है कि वह भ्रष्टाचार पर परदा तो डाले रखना ही चाहती है, इसे संजीवनी देने का काम भी कर रही है। विदेशों में जमा काले धन की वापसी में अहम भूमिका की दरकार सीबीआइ से ही थी, लेकिन वह केंद्र सरकार के दबाव में क्या काला-पीला कर रही है, इसकी जानकारी भी देश की जनता को अब नहीं मिलेगी। सूचना के अधिकार पर बंदिश लगाने का सिलसिला यहीं थमने वाला नहीं है। कुछ और विभाग प्रमुख भी अंतरराष्ट्रीय मामलों और शर्तो का बहाना लेकर इस फैसले के आधार पर आरटीआइ से छुटकारा पाने की कवायद में लग जाएंगे। देश के न्यायाधीश तो इस दायरे में लिए जाने का विरोध शुरू से ही कर रहे हैं। अब उनकी मांग को और मजबूती मिलेगी। सीबीआइ की मुक्ति से इन आशंकाओं को भी बल मिला है कि केंद्र सरकार के इशारों पर ही सीबीआइ अपनी कार्रवाइयों को अंजाम देती है। और इसका प्रमुख मकसद विपक्षी दलों को परेशान करना और सत्तापक्ष के लोगों को अभयदान देना होता है। लेकिन सूचना की पारदर्शिता के इस अचूक अस्त्र को अभी न्यायपालिका से चुनौती मिलने की उम्मीद की जा सकती है। देश में पारदर्शी और भ्रष्टाचार मुक्त शासन की नागरिक समाज और जनआंदोलन जिस तरह से मांग उठा रहे हैं, उसी दौरान संप्रग सरकार ने जिस जल्दबाजी में सीबीआइ को मंत्रियों और अधिकारियों के भ्रष्टाचार को गोपनीय बनाए रखने का जो हक दिया है, उससे यह जाहिर होता है कि यह उपाय जनआंदोलनों को ठेंगा दिखाने का भी एक तरीका है। यह कार्यवाही जिस गोपनीय ढंग से की गई है, उससे भी जाहिर होता है कि सरकार कि इच्छा तो जनता को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाना है और ही सशक्त लोकपाल विधेयक लाना। काले धन को भी शायद सरकार वापस लाना नहीं चाहती। इसलि संप्रग सरकार की कैबिनेट ने गत नौ जून को एक अधिसूचना जारी कर सीबीआइ को सूचना के अधिकार अधिनियम की धारा 24 की दूसरी अनूसूची वाले संगठनों में 23वें स्थान पर रख दिया है। इस अनुसूची में खुफिया और सुरक्षा एजेंसियां सामिल हैं, जिनकी जानकारी सूचना के अधिकार के तहत नहीं ली जा सकती। लिहाजा, अब सीबीआइ पर भी सूचना देने की बाध्यता लागू नहीं होगी। इस लिहाज से सीबीआइ के अधीन जिन भ्रष्ट मंत्रियों, नौकरशाहों और औद्योगिक घरानों के मामले विचाराधीन हैं, उनकी संपत्ति की जानकारी अब नहीं ली जा सकती है। इसी तरह काले धन से जुड़े जिन मामलों की जांच सीबीआइ कर रही है, उन व्यक्तियों के तो नाम उजार होंगे और ही ये आंकड़े सामने पाएंगे कि उनका कितना काला धन विदेशी बैंकों में जमा है। सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद और कांग्रेस पार्टी के लिए सूचना का अधिकार कान अभी तक एक बड़ी उपलब्धि माना जाता था। भ्रष्टाचार पर भय और अंकुश का भी यह एक प्रभावी अस्त्र था। देश की भ्रष्ट नौकरशाही के लिए यह कानून नाकों चने चबाने का काम कर रहा था। लिहाजा, एक नौकरशाह प्रधानमंत्री के रहते हुए इस कानून के नख-दंत कब तक बचे रहते? कटौतियोके बहाने अब एक-एक कर इसके नाखून और दांत उखाड़ दिए जाएंगे, क्योंकि केंद्रीय जांच ब्यूरो पर सूचना का अधिकार अधिनियम लागू होने का फैसला संसद की मंशा से नहीं, बल्कि सरकार के सबसे आला अधिकारी कैबिनेट सचिव केएम चंद्रशेखर की मंशा के अनुसार हुआ है। उन्होंने सेवानिवृत्त होने से ठीक एक दिन पहले इस सिफारिश पर सरकार का अंगूठा लगवा लिया। यह स्थिति राष्टीय सलाहकार परिषद की अवहेलना तो है ही, उन निर्वाचित सांसदों को भी ठेंगा दिखाना है, जिन्होंने 2005 में बहुमत से इस अधिकार को अधिनियम में तब्दील किया था। इस हालात ने यह भी तय कर दिया है कि लोकतंत्र के शीर्षस्थ सदन राज्यसभा और लोकसभा से कहीं ज्यादा हैसियत देश के एक नौकरशाह के पास है। परिषद की सक्रिय सदस्य अरुणा राय इस परिवर्तन के खिलाफ थीं। उन्होंने विरोध भी जताया, लेकिन उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती बनकर रह गई। लोकतंत्र प्रहरी कई सांसदों और मीडिया ने भी यथास्थिति बनाए रखने की पहल की, लेकिन नौकरशाह केएम चंद्रशेखर के कानों में जूं तक नहीं रेंगी और इस प्रस्ताव के संशोधित मसौदे को मनमोहन सिंह से मंजूर करा लिया। नियमानुसार इसे संसद के पटल पर रखा जाना चाहिए था। देश के नौकरशाह तो गोपनीयता कानून को अंग्रेजी हुकूमत के समय से ही सुरक्षित बनाए हुए थे। गोपनीयता उनके भ्रष्ट आचरण पर परदा डाले रखने की सबसे मजबूत ढाल है। इसीलिए गोपनीयता को भंग करने वाला कोई पारदर्शी कानून वजूद में आए, इसके वे कभी हिमायती नहीं रहे। सूचना के अधिकार ने तो पारदर्शिता की सिर्फ एक खिड़की खोली थी, जिसे बंद करने का सिलसिला शुरू हो गया। हाल के दिनों में जितने बड़े घोटाले सामने आए हैं, उनमें सूचना अधिकार और आरटीआइ कार्यकर्ताओं की अहम भूमिका रही है। भ्रष्टाचार से जुड़े 2जी स्पेक्ट्रम, राष्ट्रमंडल खेल, आदर्श सोसायटी जैसे बड़े मामलों को उजागर करने में कहीं कहीं सूचना के अधिकार का दखल रहा है। परदे को भेदने वाले इसी ब्रह्मास्त्र से जुटाए दस्तावेजी सक्ष्यों को जनहित याचिका का आधार बनाया गया और फिर न्यायालयों की फटकार से सरकार और सीबीआइ ने मजबूरी वश जांच प्रक्रिया आगे बढ़ाई। जाहिर है, मंत्रियों और आला अधिकारियों के गले में फंदा बने सबूतों की जानकारी अब हासिल नहीं होगी और सीबीआइ सरकार की मंशा के मुताबिक सबूतों से खिलवाड़ करेगी। इस खिलवाड़ के लिए ही सीबीआइ को सूचना के अधिकार से छूट देने की कवायद की गई है, जो शर्मनाक है। घोटालेबाजों और गड़बड़ी करने वाले पूरे तंत्र के गोपनीय दस्तावेज सीबीआइ के पास होते हैं और सीबीआइ से इन्हें हासिल करने का एकमात्र अस्त्र था सूचना का अधिकार, जिसे भोंथरा कर दिया है। नागरिक समाज के कार्यकर्ता सूचना के दायरे से मुक्त न्यायालयों और न्यायाधीशों को भी इस कानून के दायरे में लाना चाहते थे। इसके लिए स्वयंसेवी संगठन पीयूसीएल ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका भी दायर की थी, जिसका मकसद था कि सूचना के अधिकार के तहत सुप्रीमकोर्ट और हाईकोर्ट के न्यायाधीशों की पारिवारिक संपत्ति का ब्योरा मांगा जा सके। लेकिन तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायामूर्ति बालकृष्णन ने इस मांग को इस दलील के साथ ठुकरा दिया था कि उनका दफ्तर सूचना के दायरे से इसलिए बाहर है, क्योंकि वे संवैधानिक पदों पर नियुक्त हैं, जबकि विधि और कार्मिक मंत्रालय की स्थायी संसदीय समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में यायापालिका को सूचना कानून के दायरे में लाने की सिफारिश की है। इस समिति ने यह भी दलील दी थी कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोग भी लोकसेवक हैं। लिहाजा, सूचना का अधिकार उन पर लागू होना चाहिए, लेकिन यहां विडंबना है कि संसद न्यायपालिका को कोई दिशा-निर्देश नहीं दे सकती और न्यायपालिका का विवेक मानता है कि वह सूचना के अधिकार से परे है। यहां गौरतलब यह है कि जब यह अधिकार संसद पर लागू हो सकता है तो न्यायपालिका पर क्यों नहीं? यदि प्रजातंत्र में जनता सर्वोपरि है तो नागरिक को न्यायपालिका के क्षेत्र में भी जानकारी लेने का अधिकार मिलना चाहिए, लेकिन अब जब सीबीआइ को ही इस दायरे से छूट मिल गई है तो न्यायपालिका को सूचना के दायरे में लाने के सवाल ही उठने मुश्किल हो जाएंगे। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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