सत्ता के लिए जरूरी जमीनी राजनीति

 कुछ महीने पहले "नईदुनिया" द्वारा सूचना के अधिकार के तहत उद्योगपतियों से नियमित होने वाली मुलाकातों का विवरण माँगे जाने पर उत्तर मिला कि "इन मुलाकातों का रिकॉर्ड ही नहीं रखा जाता।" मजेदार बात यह है कि प्रधानमंत्री सचिवालय में उनके सचिवों-सलाहकारों से मिलने वाले उद्योगपतियों-व्यापारियों के नाम तक कम्प्यूटर में दर्ज नहीं होते।



मनमोहनसिंह का दावा है कि उनके मंत्रिमंडल की टीम नेहरू और इंदिरा गाँधी की टीमों से बेहतर एकजुट और मजबूत है। दूसरी तरफ खुशवंतसिंह जैसे वरिष्ठ भक्त पत्रकार मनमोहनसिंह को आजादी के बाद सबसे श्रेष्ठ प्रधानमंत्री बता रहे हैं। क्या कांगेरस पार्टी इन दावों के बल पर आगामी चुनाव जीतने का सपना देख सकती है? पहली परीक्षा अगले बिहार विधानसभा चुनाव में ही होनी है। कांगेरस पार्टी सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी के अलावा कितने केंद्रीय मंत्रियों को "स्टार प्रचारक" के रूप में भेज सकती है? सचमुच जनता को मुग्ध करने वाले किसी मंत्री या वरिष्ठ नेता की पहुँच क्या प्रधानमंत्री के दरबार में हो सकती है? पं. जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गाँधी के निवास पर रोज सुबह दो-ढाई सौ सामान्य लोग पूर्व निर्धारित समय लिए बिना पहुँचते थे और संतुष्ट होकर लौटते थे। अब प्रधानमंत्री की बात तो दूर रही, उनके किसी कैबिनेट मंत्री के निवास पर भी ऐसी व्यवस्था नहीं है। हाँ, प्रधानमंत्री कार्यालय में उद्योगपति-व्यापारी का सदैव स्वागत है। कुछ महीने पहले "नईदुनिया" द्वारा सूचना के अधिकार के तहत उद्योगपतियों से नियमित होने वाली मुलाकातों का विवरण माँगे जाने पर आधिकारिक रूप से उत्तर मिला कि "इन मुलाकातों का रिकॉर्ड ही नहीं रखा जाता।" मजेदार बात यह है कि अति सुरक्षित कहे जाने वाले प्रधानमंत्री सचिवालय में उनके सचिवों-सलाहकारों से मिलने वाले उद्योगपतियों-व्यापारियों के नाम तक कम्प्यूटर में दर्ज नहीं होते और वे धड़ल्ले से आते-जाते रहते हैं। कांगे्रस के अधिकांश सांसदों, विधायकों या पार्टी के पदाधिकारियों की पहुँच ऐसी आसान नहीं है। आर्थिक विकास दर और मनमोहनसिंह के "जादुई व्यक्तित्व" का असर बिहार-बंगाल में क्यों नहीं चल सकता?

बिहार में चुनावी बिगुल बजाने के लिए कांग्रेस पार्टी ने पिछले सप्ताह राहुल गाँधी को भेजा। उनकी दोनों सभाएँ सफल रहीं क्योंकि यह क्षेत्र कांगे्रस विधायक दल के नेता अशोक राम का है लेकिन कांगे्रस पार्टी की सजाई पालकी पर बैठे मनमोहनसिंह क्या नेहरू और इंदिरा गाँधी की तरह धुआँधार चुनावी अभियान के लिए जा सकते हैं? इसके विपरीत उम्मीदवार तय होने से पहले ही विधानसभा में सीटें १० से ३० तक करने में ही संतोष कर लेने और जरूरत पड़ने पर केंद्र में नीतीश कुमार-शरद यादव के जनता दल (यू) की बैसाखियाँ मिल सकने की संभावनाएँ टटोली जा रही हैं। पराकाष्ठा यह है कि देश-दुनिया में सरकार की स्वच्छ और ईमानदार छवि का दावा किया जाता है लेकिन सर्वशक्तिसंपन्ना मनमोहनसिंह की सलाहकार मंडली ने राहुल की सभाओं में मंच पर बदनाम चेहरों की जय-जयकार तथा महिमामंडन पर कोई आपत्ति दर्ज नहीं की ? पिछले वर्षों के दौरान दिल्ली दरबार में अशोक राम जैसे नेताओं को अधिक महत्व नहीं दिया गया लेकिन केंद्र सरकार ने लालूप्रसाद यादव की सिफारिशों को मानकर अधिकाधिक उपकृत करने का प्रयास किया। यूँ भाजपा ने भी जब विवादास्पद और आपराधिक छवि वाले नेताओं का सहारा लिया, उसे भारी नुकसान उठाना पड़ा। भाजपा नेतृत्व को देर-सबेर अपनी गलती का एहसास हुआ और इस बार भी जातीय समीकरणों के दबावों के बावजूद संभवतः वह दागियों को उम्मीदवार बनाने से बचेगी। विवादों के बावजूद भाजपा अन्य बड़े नेताओं के साथ नरेंद्र मोदी को भी स्टार प्रचारक के रूप में बिहार ले जाने की तैयारी में है। फिर सुषमा स्वराज, रमनसिंह, शिवराजसिंह, अरुण जेटली और लालकृष्ण आडवाणी जैसे कई नेताओं को लाकर भाजपा बिहार में अपना हिस्सा बढ़ाने की कोशिश करेगी, वहीं कांगे्रस की समस्या यह है कि उसके पास स्टार प्रचारक सीमित हैं और उसकी सरकार में जमीनी नेताओं का संकट है। जो हैं, वे अपने राज्यों तक ही सीमित हैं। जो मंत्री नहीं हैं, वे स्वयं केंद्र सरकार के अफसरशाही और गैर राजनीतिक रवैए के सबसे बड़े आलोचक हैं। चुनावी मैदान में वे मनमोहन राज की कमियाँ बताकर कितना लाभ दिला सकते हैं ? कैबिनेट मंत्रियों में पी. चिदंबरम, प्रणब मुखर्जी, एसएम कृष्णा से बिहार के चुनाव प्रचार में कोई लाभ नहीं लिया जा सकता। अंबिका सोनी अवश्य अच्छी वक्ता हैं लेकिन सरकार और कांगे्रस पार्टी में उन्हें समुचित महत्व नहीं दिया जाता । सलमान खुर्शीद अच्छे वक्ता हैं लेकिन उनकी बातों को गृह राज्य उत्तरप्रदेश में ही महत्व नहीं दिया जाता। मतलब यह कि केंद्र में कांगे्रस की सरकार अवश्य है लेकिन जमीनी आधार वाले नेताओं को लगातार किनारे किया गया है। सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी के लिए जनता में आकर्षण हो सकता है लेकिन सही अर्थों में गरीबों के कल्याण के लिए समर्पित सरकार की छवि तो नहीं बन पाई है। विकास दर के आँकड़ों से गरीबों के पेट की आग नहीं बुझ सकती। कांगे्रस के लिए मुश्किल यह भी है कि बिहार में नीतीश कुमार ने कुछ योजनाओं-कार्यक्रमों को बहुत अच्छे ढंग से क्रियान्वित किया है। लालू-राज के १५ साल कलंकित अध्याय की तरह रहे हैं। यदि कांगे्रस नीतीश और नरेंद्र मोदी के हाथ खड़े कर एकसाथ दिखने को मुद्दा बना सकती है, तो विरोधी पक्ष केंद्र में मनमोहनसिंह और लालू यादव के ५ साल साथ रहने के पचासों फोटो जारी कर "असली चेहरे" का सवाल उठा सकता है। गठबंधन की राजनीति पर कभी आँसू बहाने और कभी समर्पण की मजबूरी दिखाने वाले राष्ट्रीय स्तर के नेताओं ने क्या कभी जनता और जमीन से जुड़ने की कोई कोशिश पिछले वर्षों के दौरान की है?

पं. जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गाँधी की तरह १८-१८ घंटे उबड़-खाबड़ सड़कों पर यात्रा करने तथा जनता के बीच बैठने-उठने की क्षमता कितने नेताओं के पास है? जिन युवा नेताओं को मंत्रिमंडल में रखा गया है, उनमें से अधिकांश बंद कमरे में अपना दुःखड़ा सुनाते हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय के क्लर्क या वहाँ के अफसरों की "सेवा" करने वाले एजेंटों की हर इच्छा और सिफारिश मानी जाती है लेकिन युवा [1]
                                                          

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